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प॒रो मात्र॑या त॒न्वा॑ वृधान॒ न ते॑ महि॒त्वमन्व॑श्नुवन्ति । उ॒भे ते॑ विद्म॒ रज॑सी पृथि॒व्या विष्णो॑ देव॒ त्वं प॑र॒मस्य॑ वित्से ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

paro mātrayā tanvā vṛdhāna na te mahitvam anv aśnuvanti | ubhe te vidma rajasī pṛthivyā viṣṇo deva tvam paramasya vitse ||

पद पाठ

प॒रः । मात्र॑या । त॒न्वा॑ । वृ॒धा॒न॒ । न । ते॒ । म॒हि॒ऽत्वम् । अनु॑ । अ॒श्नु॒व॒न्ति॒ । उ॒भे इति॑ । ते॒ । वि॒द्म॒ । रज॑सी॒ इति॑ । पृ॒थि॒व्याः । विष्णो॒ इति॑ । दे॒व॒ । त्वम् । प॒र॒मस्य॑ । वि॒त्से॒ ॥ ७.९९.१

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:99» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:24» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मात्रया) प्रकृति के पञ्चतन्मात्रारूप (तन्वा) शरीर से (वृधानः) वृद्धि को प्राप्त (ते) तुम्हारी (महित्वम्) महिमा को हे (विष्णो) विभो ! (न) नहीं (अश्नुवन्ति) प्राप्त कर सकते। हे व्यापक परमात्मन् ! (ते) तुम्हारे (उभे) दोनों लोकों को हम (विद्म) जानते हैं, जो (पृथिव्याः) पृथिवी से लेकर (रजसी) अन्तरिक्ष तक हैं, जो (देव) दिव्य शक्तिमन् परमात्मन् ! (त्वं) तुम ही (अस्य) इस ब्रह्माण्ड के (परं) पार को (वित्से) जानते हो, अन्य नहीं ॥१॥
भावार्थभाषाः - जीव केवल प्रत्यक्ष से लोकों को जान सकता है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों का ज्ञाता एकमात्र परमात्मा है। तन्मात्रा कथन करना यहाँ प्रकृति के सूक्ष्म कार्य्यों का उपलक्षणमात्र है। तात्पर्य यह है कि प्रकृति उसके शरीरस्थानी होकर उस परमात्मा के महत्त्व को बढ़ा रही है, या यों कहो कि प्रकृत्यादि सब पदार्थ उस परमात्मा के एकदेश में हैं और वह असीम अर्थात् अवधिरहित है ॥१॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मात्रया) प्रकृत्या पञ्चतन्मात्ररूपेण (तन्वा) शरीरेण (वृधानः) वृद्धिं प्राप्तं (ते) तव (महित्वम्) महिमानं (विष्णो) हे विभो ! (न) नैव (अश्नुवन्ति) प्राप्नुवन्ति, हे विभो ! (ते) तव (उभे) उभावपि लोकौ (विद्म) जानीमः यौ (पृथिव्याः) पृथिवीतः (रजसी) अन्तरिक्षपर्यन्तौ स्तः (देव) हे दिव्यशक्तिमन् ! (त्वम्) त्वमेव (अस्य) अस्य ब्रह्माण्डस्य (परम्) पारं (वित्से) जानासि नान्यः, यतः (परः) सर्वस्मात्परोऽसि ॥१॥